(नागपत्री एक रहस्य-38)

लक्षणा को एक मामूली लड़की ही समझना तुम्हारी भूल थी, क्योंकि इस सदी में नाग लोक की विशेष कृपा प्राप्त करने वाली उन महान विभूतियों में से एक है लक्षणा, और हर समय यह समझ लेना कि कोई भी लड़की मोह पास में इतनी आसानी से बंध जाए यह बेवकूफी के अलावा कुछ नहीं है। 

                   तुम्हारे जैसे कितने ही दुराचारियों ने उज्जवल शक्तियों को उभरने से पहले ही नष्ट कर देने का प्रयास सदियों से किया है।


आखिर किस बात का भय है तुम्हें और क्या प्रयास था तुम्हारा?? अपना संपूर्ण मंडप जलाकर भी क्या तुम्हें संतुष्टि नहीं हुई, क्यों अपने परिवार का नाश करने पर तुले हो?? यदि अब भी तुम ना सुधरे तो हो सकता है तुम्हारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाए।
       मुझे तो अपने आप पर ही क्रोध आता है कि मैंने आखिर क्या सोचकर शिष्य  रूप में तुम्हें स्वीकार किया था, सड़क पर भीख मांगते हुए बच्चे पर दया करना क्या मेरा गुनाह था?? मुझे क्या पता था कि बचपन में दयालु स्वभाव का दिखने वाला बालक आगे जाकर शक्ति को पाते ही उसके घमंड में चूर हो सकता है। 



मुझे तो आज का "सुलेखा"का दिया श्राप स्पष्ट शब्दों में नजर आ रहा है, मैं नहीं जानता कि क्या सच्चाई थी, और जानना भी नहीं चाहता, लेकिन हां मुझे आज यकीन आ गया कि सुलेखा गलत नहीं हो सकती।
               उस लड़की ने सच्चे मन से आश्रम की सेवा स्वीकार की थी, और तुमने उसे धोखा देकर उसी पर अपनी विद्या का दुरुपयोग किया, यदि मेरे बस में होता तो मैं एक पल में तुम्हारी सारी विद्याएं तुमसे छिनकर तुम्हें अब तक नर्क में पहुंचा दिया होता।



लेकिन मैं विवश हूं अपनी गुरु मां को दिए हुए वचन से जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था मुझे कि, मैं अपनी किसी भी शक्ति का प्रयोग अपने विद्यार्थियों के खिलाफ नहीं करूंगा उनके कार्यों में कोई बाधा नहीं डालूंगा, कभी भी त्रिकालदर्शी शक्ति का प्रयोग अपने विद्यार्थियों के भूत या भविष्य को जानने के लिए नहीं करूंगा, काश कि मैं तुम्हारे दुष्कर्मों को देख लेता तो, तुम्हें ऐसी शक्तियां कभी भी प्रदान नहीं करता। 
                       फिर भी कहता हूं लौट जाओ, और दोबारा कभी इस शक्ति मंडप का दुरुपयोग करने का दुस्साहस मत करना, यह सिर्फ सात्विक काया के लिए है, शैतानी विचारों के लिए नही, कहते हुए उन्होंने चुटकी के साथ अपने असुर शक्ति से एक पल में ही "पूर्वक" को मंडप के बहार दूर उछाल फेंका, वह मूर्छित अवस्था में इतनी तेज गति से फेंकाया था कि उसके होश उड़ गए। 



गुरु का यह रौद्र रूप उसने पहली बार देखा था, और सुलेखा का नाम सुनकर जैसे उसका अतीत उसके सामने आकर खड़ा हो गया, और उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, कि सुलेखा और उसका काला सच किसी के सामने आएगा, वह मूर्छा की अवस्था में अपने अतीत में खो गया, क्योंकि अक्सर जब कोई निढाल हो जाता है, तब ही उसे अपनी गलतियों का एहसास होता है, वरना शक्ति का अहंकार भला कहां सोचने का मौका देती है, 
          वह सोचने लगा उस अतीत में जाकर जब उसके गुरुजी गली-गली भिक्षा मांगकर मांगकर लोगों को दवा और दुआ से ठीक होने की सलाह देते, और भिक्षा में मिली जो भी अन्य सामग्री होती उससे वापस लौट कर अपने आश्रम में पहले बच्चों को खिलाते और फिर खुद प्रसाद के रूप में गृहण करते है। 



यह बच्चे उनके नहीं थे, वरन समाज में ठुकराये गए वे अभागे थे, जिनका कोई सहारा नहीं था और विवश थे वे दर दर की ठोकर खाने के लिए इसी दौरान पूर्वक को एक दिन चाय दुकान पर उसके मालिक के द्वारा पीटते हुए उन्होंने देख लिया, महज इसलिए क्योंकि बेचारा बच्चा उतनी ठंड में सुबह उठकर चाय बनाने की भट्टी को जलाने में देरी कर बैठा था, और मालिक झुंझलाकर बहुत कुटे जा रहा था।
                करुणा दृष्टि से देख तो सभी रहे थे, लेकिन रोक देने का साहस किसी में नहीं था, शायद सभी किसी न किसी बंधन में बंधे हुए और विशेष जिम्मेदारियों के बोझ में दबे हुए थे 



लेकिन मौला फकीर को भला किस बात का डर, वे पहुंच गए उसके मालिक के पास और हाथ पकड़कर रोकते हुए कहने लगे, क्या दोष है इस बच्चे का जो इतनी ठंड में इसे इतनी बेरहमी से पीट रहे हो?? क्या यह बच्चा तुम्हारा है?? नहीं देखकर साफ़ लगता है कि यह तुम्हारा वजूद नहीं हो सकता, वरना इसका यह हाल नहीं करते। 
             मैं नहीं जानता कि इसका अतीत क्या रहा होगा, लेकिन किसी को भी हक नहीं बनता कि ईश्वर कि इन सौगातों को कुचलने का प्रयास भी करें, क्या हुआ किस बात का घमंड और शौक है तुझे, क्या गया तेरा, इसी भट्टी की आग के लिए तु भटकता है तो ले हो गई तेरी भट्टी, कहते हुए हाथ में रखा नागफनी रूपी डंडों को उन्होंने भट्टी की और घुमाया, देखते ही देखते वह भट्टी चमकती हुई ज्वाला सी भड़कने लगी। 



उनके तेज गुस्से और अचानक भट्टी में उठी तेज ज्वाला को देख वह घबरा उठा, और इससे पहले कि कुछ बोल पाता और पीछे हट गया, और आसपास देखने वाले दर्शक इस चमत्कार को देखकर घबरा गए और इससे पहले की भीड़ की कोई प्रतिक्रिया होती, उन्होंने "पूर्वक" को  उठाया और अपने साथ ले आए।                    
      उसकी कराह, दर्द और मार खाने का दंड गुरुजी को अत्यंत दयनीय जान पड़ा था, और इसलिए उनके मन में उतना ही प्रेम उसके लिए बढ़-चढ़कर था। 



वह पूर्वक को उस स्थिति पर पहुंचा देना चाहते थे, कि भविष्य में कोई भी अनाथ बच्चे के साथ ऐसा दुस्साहस ना करें, उस समय गुरुजी एक नौजवान सेवक थे ,और विद्याओं का संकलन लगातार जारी था।
             उम्र का पड़ाव क्रोध और संकल्प या जिसमें चाहे कोई भी क्यों ना हो, शक्ति के प्रभाव को छिपाकर नहीं रख सकता, और उनके प्रदर्शन के लिए संकल्प लेने से नहीं चूकता, वह शायद प्रकृति की देन है, वरना ऐसे अनेकों उदाहरण इतिहास में देखने को नहीं मिलते। 



उन्होंने निश्चय किया कि अब वे अपने इन बच्चों को सिर्फ लालन पोषण और शिक्षा ही प्रधान नहीं करेंगे अपितु उस शक्ति से भी परिचित कराएंगे जिसे प्राप्त कर स्वयं दैवीय शक्तियों को भी पराजित करने का दमखम एक सामान्य मानव भी कर सकता है, और तब से विद्या प्रारंभ हुई थी पूर्वक की।
                पूर्वक के आश्रम में आने के बाद सुलेखा को लेकर आए हुए गुरुजी छोटी सी महज दो साल की बच्ची जिसे कोई जानबूझकर छोड़ गया था, इसलिए क्योंकि यह उस परिवार की तीसरी बेटी थी, और वह निर्मोही पिता उसे बोझ समझकर त्याग देना चाहता था, लेकिन कुछ उपाय न देखा उसे चौराहे पर एक खिलौने की दुकान पर छोड़, यह सोच चला गया कि ईश्वर ने सृष्टि में हर किसी का भाग्य लिखा है, तो अवश्य इसके लिए भी कुछ ना कुछ व्यवस्था की होगी, निर्मोही शायद ईश्वर को चुनौती देने जा रहा था 


क्रमशः...

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